न्यायिक समीक्षा: अर्थ, महत्व, संवैधानिक स्थिति, उद्देश्य (Judicial Review in hindi)

 इस ब्लॉग में हम न्यायिक समीक्षा (Judicial Review) के बारे में पढ़ेंगे। इनका अर्थ, आवश्यकता, संवैधानिक स्थिति, उद्देश्य आदि के बारे में विस्तार से अध्ययन करेंगे।

न्यायिक समीक्षा (Judicial Review in hindi)

न्यायिक समीक्षा: अर्थ, आवश्यकता, संवैधानिक स्थिति, उद्देश्य

 न्यायिक समीक्षा के सिद्धांत की उत्पत्ति एवं विकास अमेरिका में हुआ। वहीं भारतीय संविधान स्वयं सर्वोच्च न्यायालय एवं उच्च न्यायालयों को न्यायिक समीक्षा की शक्ति देता है। साथ ही सर्वोच्च न्यायालय ने घोषित कर रखा है कि न्यायिक समीक्षा की न्यायपालिका की शक्ति संविधान की मूलभूत विशेषता है, तथापि संविधान में मूलभूत ढांचे का एक तत्व है। इसलिए न्यायिक समीक्षा की शक्ति में संविधान संशोधन के द्वारा भी न तो कटौती की जा सकती है न ही इसे हटाया जा सकता है।

न्यायिक समीक्षा का अर्थ

न्यायिक समीक्षा विधायी अधिनियमनों तथा कार्यपाालिका आदेशों की संवैधानिकता की जांच की न्यायपालिका की शक्ति है जो केन्द्र और राज्य सरकारों पर लागू होती है। समीक्षा के पश्चात् यदि पाया गया कि उनसे संविधान का उल्लंघन होता है तो उन्हें अवैध, असंवैधानिक तथा अमान्य घोषित किया जा सकता है और सरकार उन्हें लागू नहीं कर सकती।

न्यायिक समीक्षा को निम्नलिखित तीन कोटियों

  • संविधानिक संशोधनों की न्यायिक समीक्षा।
  • संसद और एक विधायिकाओं द्वारा पारित कानूनों एवं अधीनस्थ कानूनों की समीक्षा।
  • संघ तथा राज्य एवं राज्य के अधीन प्राधिकारियों द्वारा प्रशासनिक कार्यवाही की न्यायिक समीक्षा।

न्यायिक समीक्षा का महत्व

न्यायिक समीक्षा निम्नलिखित कारणों से जरूरी है:

  • संविधान की सर्वोच्चता के सिद्धांत को बनाए रखने के गई लिए।
  • संघीय संतुलन (केंद्र एवं राज्यों के बीच संतुलन) बनाए हैं रखने के लिए।
  • नागरिकों के मूल अधिकारों की रक्षा के लिए।

न्यायिक समीक्षा के लिए संवैधानिक प्रावधान

संविधान में 'न्यायिक समीक्षा' शब्द का उपयोग कहीं नहीं हुआ है, किंतु अनुच्छेदों के प्रावधान सर्वोच्च न्यायालय एवं उच्च न्यायालयों को न्यायिक समीक्षा की शक्ति प्रदान करते हैं। ये प्रावधान निम्नलिखित हैं:

  • अनुच्छेद 13 घोषणा करता है कि सभी कानून जो मूल अधिकारों की संगति में रहे हैं या उनका अपकर्ष करते हैं, निरस्त माने जाएंगे।
  • अनुच्छेद 32 मौलिक अधिकारों को लागू करने के लिए सर्वोच्च न्यायालय जाने के नागरिकों के अधिकार की गारंटी करता है, साथ ही सर्वोच्च न्यायालय को शक्ति देता है कि वह इसके लिए निदेश अथवा आदेश अथवा न्यायादेश जारी करे।
  • अनुच्छेद 131 केन्द्र-राज्य तथा अन्तर-राज्य विवादों के लिए सर्वोच्च न्यायालय का मूल क्षेत्राधिकार निश्चित करता है।
  • अनुच्छेद 132 संवैधानिक मामलों में सर्वोच्च न्यायालय का अपीलीय क्षेत्राधिकार सुनिश्चित करता है।
  • अनुच्छेद 133 सिविल मामलों में सर्वोच्च न्यायालय का अपीलीय क्षेत्राधिकार सुनिश्चित करता है।
  • अनुच्छेद 134 आपराधिक मामलों में सर्वोच्च न्यायालय का अपीलीय क्षेत्राधिकार सुनिश्चित करता है।
  • अनुच्छेद 134-ए उच्च न्यायालयों से सर्वोच्च न्यायालय को अपील के लिए प्रमाणपत्र (Certificate for appeal) से सम्बन्धित है।'
  • अनुच्छेद 135 सर्वोच्च न्यायालय को किसी संविधान पूर्व के कानून के अंतर्गत संघीय न्यायालय (Federal Court) के क्षेत्राधिकार एवं शक्ति का प्रयोग करने की शक्ति प्रदान करता है।
  • अनुच्छेद 136 सर्वोच्च न्यायालय को किसी न्यायालय अथवा न्यायाधिकरण से अपील के लिए विशेष अवकाश प्रदान करने के लिए अधिकृत करता है, सैन्य न्यायाधिकरण एवं कोर्ट मार्शल को छोड़कर।
  • अनुच्छेद 143 राष्ट्रपति को कानून सम्बन्धी किसी प्रश्न के तथ्य पर अथवा किसी संविधान-पूर्व के वैधिक (कानूनी) मामलों में सर्वोच्च न्यायालय की राय मांगने के लिए अधिकृत करता है।
  • अनुच्छेद 226 उच्च न्यायालयों को मौलिक अधिकारों को लागू करने या किसी अन्य प्रयोजन से निदेश, आदेश या रिट जारी करने की शक्ति प्रदान करता है।
  • अनुच्छेद 227 सर्वोच्च न्यायालयों को अपने-अपने क्षेत्रीय अधिकार क्षेत्र में सभी न्यायालयों एवं न्यायाधिकरणों(सैन्य अदालतों एवं न्यायाधिकारों को छोड़कर) के अधीक्षण की शक्ति प्रदान करता है।
  • अनुच्छेद 245 संसद एवं राज्य विधायिकाओं द्वारा निर्मित कानूनों की क्षेत्रीय सीमा तय करने से सम्बन्धित है।
  • अनुच्छेद 246 संसद एवं राज्य विधायिकाओं द्वारा निर्मित कानूनों की विषय-वस्तु से सम्बन्धित है (अर्थात् संघ सूची, राज्य सूची एवं समवर्ती सूची)।
  • अनुच्छेद 251 एवं 254 केन्द्रीय कानून एवं राज्य कानूनों के बीच टकराव की स्थिति में यह प्रावधान करता है कि केन्द्रीय कानून राज्य कानून के ऊपर बना रहेगा और राज्य कानून निरस्त हो जाएगा।
  • अनुच्छेद 372 संविधान-पूर्व के कानूनों की निरंतरता से सम्बन्धित है।

न्यायिक समीक्षा का विषय क्षेत्र

किसी विधायी अधिनियमन अथवा कार्यपालकीय आदेश की संवैधानिक वैधता को सर्वोच्च न्यायालय या उच्च न्यायालय में निम्न तीन आधारों पर चुनौती दी जा सकती है:

  1. यह मौलिक अधिकारों का उल्लंघन करता है,
  2. यह उस प्राधिकारी की सक्षमता से बाहर का है जिसने इसे बनाया है, तथा;
  3. यह संवैधानिक प्रावधानों के प्रतिकूल है।

उच्चतम न्यायालय: न्यायिक समीक्षा 

  • अनेक मामलों में सर्वोच्च न्यायालय ने देश में न्यायिक वे समीक्षा की शक्ति के महत्व पर बल दिया है।
  • सर्वोच्च न्यायालय ने विभिन्न मुकदमों में न्यायिक समीक्षा की शक्ति का उपयोग किया, उदाहरण के लिए, गोलकनाथ मामला (1967), बैंक राष्ट्रीयकरण मामला (1970), प्रिवीयर्स उन्मूलन मामला (1971), केशवानंद भारती मामला (1973), मिनर्वा मिल्स मामला (1980) इत्यादि।
  • वर्ष 2015 में सर्वोच्च न्यायालय ने 99वें संविधान संशोधन, 2014 तथा राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग (NJAC), अधिनियम, 2014 दोनों को असंवैधानिक करार दिया।
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