भारतीय संविधान कि पृष्ठभूमि 1857 से 1947 (Historical Background of Indian Constitution in Hindi) part 2
इस भाग में भारतीय संविधान कि पृष्ठभूमि का द्वितीय भाग ( ताज का शासन 1857 से 1947) का अध्ययन करेंगे। 1857 के स्वतंत्र संग्राम के बाद ब्रिटिश संसद ने भारत की नीतियों में परिवर्तन किया,अब भारत का शासन सीधे महारानी विक्टोरिया के अधीन आ गया, भारत की समस्त राजस्व संबधी सभी शक्तियां ब्रिटिश राजशाही को हस्तांतरित की गई।
1857 का भारत शासन अधिनियम
इस महत्वपूर्ण कानून का निर्माण 1857 के विद्रोह के बाद किया गया, जिसे भारत का प्रथम स्वतंत्रता संग्राम या सिपाही विद्रोह भी कहा जाता है।
- इसके तहत भारत का शासन सीधे महारानी विक्टोरिया के अधीन चला गया। गवर्नर जनरल का पदनाम बदलकर भारत का वायसराय कर दिया गया। वह (वायसराय) भारत में ब्रिटिश ताज का प्रत्यक्ष प्रतिनिधि बन गया। लॉर्ड कैनिंग भारत के प्रथम वायसराय बने। इस अधिनियम ने नियंत्रण बोर्ड और निदेशक कोर्ट समाप्त कर भारत में शासन की द्वैध प्रणाली समाप्त कर दी।
- एक नए पद, भारत के राज्य सचिव, का सृजन किया गया; जिसमें भारतीय प्रशासन पर संपूर्ण नियंत्रण की शक्ति निहित थी। यह सचिव ब्रिटिश कैबिनेट का सदस्य था और ब्रिटिश अंततः संसद के प्रति उत्तरदायी था। भारत सचिव की सहायता के लिए 15 सदस्यीय परिषद का गठन किया गया, जो एक सलाहकार समिति थी। परिषद का अध्यक्ष भारत सचिव को बनाया गया।
1861 के भारत परिषद अधिनियम
- इसके द्वारा कानून बनाने की प्रक्रिया में भारतीय प्रतिनिधियों को शामिल करने की शुरुआत हुई। इस प्रकार वायसराय कुछ भारतीयों को विस्तारित परिषद में गैर-सरकारी सदस्यों के रूप में नामांकित कर सकता था।
- 1862 में लॉर्ड कैनिंग ने तीन भारतीयों-बनारस के राजा, पटियाला के महाराजा और सर दिनकर राव को विधान परिषद में मनोनीत किया।
- इस अधिनियम ने मद्रास और बंबई प्रेसिडेंसियों को विधायी शक्तियां पुनः देकर विकेंद्रीकरण की प्रक्रिया की शुरुआत की। •बंगाल, उत्तर-पश्चिम सीमा प्रांत और पंजाब में क्रमशः 1862, 1866 और 1897 में विधानपरिषदों का गठन हुआ।
- इसने वायसराय को परिषद में कार्य संचालन के लिए अधिक नियम और आदेश बनाने की शक्तियां प्रदान कीं। इसने लॉर्ड कैनिंग द्वारा 1859 में प्रारंभ की गई पोर्टफोलियो प्रणाली को भी मान्यता दी। इसके अंतर्गत वायसराय की परिषद का एक सदस्य एक या अधिक सरकारी विभागों का प्रभारी बनाया जा सकता था तथा उसे इस विभाग में काउंसिल की ओर से अंतिम आदेश पारित करने का अधिकार था।
- इसने वायसराय को आपातकाल में बिना काउंसिल की संस्तुति के अध्यादेश जारी करने के लिए अधिकृत किया। ऐसे अध्यादेश की अवधि मात्र छह माह होती थी।
1892 का अधिनियम
- इसके माध्यम से केंद्रीय और प्रांतीय विधान परिषदों में अतिरिक्त (गैर-सरकारी) सदस्यों की संख्या बढ़ाई गई, हालांकि बहुमत सरकारी सदस्यों का ही रहता था।
- इसने विधान परिषदों के कार्यों में वृद्धि कर उन्हें बजट पर बहस करने और कार्यपालिका के प्रश्नों का उत्तर देने के लिए अधिकृत किया।
- इसमें केंद्रीय विधान परिषद और बंगाल चैंबर्स ऑफ कॉमर्स में गैर-सरकारी सदस्यों के नामांकन के लिए वायसराय की शक्तियों का प्रावधान था। इसके अलावा प्रांतीय विधान परिषदों में गवर्नर को जिला परिषद, नगरपालिका, विश्वविद्यालय, व्यापार संघ, जमींदारों और चैम्बर ऑफ कॉमर्स की सिफारिशों पर गैर-सरकारी सदस्यों को नियुक्त करने की शक्ति थी।
- इस अधिनियम ने केंद्रीय और प्रांतीय विधान परिषदों दोनों में गैर-सरकारी सदस्यों की नियुक्ति के लिए एक सीमित और परोक्ष रूप से चुनाव का प्रावधान किया हालांकि चुनाव शब्द का अधिनियम में प्रयोग नहीं हुआ था। इसे निश्चित निकायों की सिफारिश पर की जाने वाली नामांकन की प्रक्रिया कहा गया।
1909 का अधिनियम
- इस अधिनियम को मॉर्ले-मिंटो सुधार के सुधार के नाम से भी जाना जाता है (उस समय लॉर्ड मॉर्ले इंग्लैंड में भारत के राज्य सचिव थे और लॉर्ड मिंटो भारत में वायसराय थे)।
- इसने केंद्रीय और प्रांतीय विधानपरिषदों के आकार में काफी वृद्धि की। केंद्रीय परिषद में इनकी संख्या 16 से 60 हो गई। प्रांतीय विधानपरिषदों में इनकी संख्या एक समान नहीं थी।
- इसने केंद्रीय परिषद में सरकारी बहुमत को बनाए रखा लेकिन प्रांतीय परिषदों में गैर-सरकारी सदस्यों के बहुमत की अनुमति थी।
- इसने दोनों स्तरों पर विधान परिषदों के चर्चा कार्यों का दायरा बढ़ाया। उदाहरण के तौर पर अनुपूरक प्रश्न पूछना, बजट पर संकल्प रखना आदि।
- इस अधिनियम के अंतर्गत पहली बार किसी भारतीय को वायसराय और गवर्नर की कार्यपरिषद के साथ एसोसिएशन बनाने का प्रावधान किया गया। सत्येंद्र प्रसाद सिन्हा वायसराय की कार्यपालिका परिषद के प्रथम भारतीय सदस्य बने। उन्हें विधि सदस्य बनाया गया था।
- इस अधिनियम ने पृथक् निर्वाचन के आधार पर मुस्लिमों के लिए सांप्रदायिक प्रतिनिधित्व का प्रावधान किया। इसके अंतर्गत मुस्लिम सदस्यों का चुनाव मुस्लिम मतदाता ही कर सकते थे। इस प्रकार इस अधिनियम ने सांप्रदायिकता को वैधानिकता प्रदान की और लॉर्ड मिंटो को सांप्रदायिक निर्वाचन के जनक के रूप में जाना गया।
- इसने प्रेसिडेंसी कॉरपोरेशन, चैंबर्स ऑफ कॉमर्स, विश्वविद्यालयों और जमींदारों के लिए अलग प्रतिनिधित्व का प्रावधान भी किया।
1919 का भारत शासन अधिनियम
- 20 अगस्त, 1917 को ब्रिटिश सरकार ने पहली बार घोषित किया कि उसका उद्देश्य भारत में क्रमिक रूप से उत्तरदायी सरकार की स्थापना करना था। क्रमिक रूप से 1919 में भारत शासन अधिनियम बनाया गया, जो 1921 से लागू हुआ। इस कानून को मांटेग-चेम्सफोर्ड सुधार भी कहा जाता है (मटिंग भारत के राज्य सचिव थे, जबकि चेम्सफोर्ड भारत के वायसराय थे)।
- केंद्रीय और प्रांतीय विषयों की सूची की पहचान कर एवं उन्हें पृथक् कर राज्यों पर केंद्रीय नियंत्रण कम किया गया। केंद्रीय और प्रांतीय विधान परिषदों को, अपनी सूचियों के विषयों पर विधान बनाने का अधिकार प्रदान किया गया। लेकिन सरकार का ढांचा केंद्रीय और एकात्मक ही बना रहा।
- इसने प्रांतीय विषयों को पुनः दो भागों में विभक्त किया- हस्तांतरित और आरक्षित। हस्तांतरित विषयों पर गवर्नर का शासन होता था और इस कार्य में वह उन मंत्रियों की सहायता लेता था, जो विधान परिषद के प्रति उत्तरदायी थे। दूसरी ओर आरक्षित विषयों पर गवर्नर कार्यपालिका परिषद की सहायता से शासन करता था, जो विधान परिषद के प्रति उत्तरदायी नहीं थी। शासन की इस दोहरी व्यवस्था को द्वैध व्यवस्था कहा गया। हालांकि यह व्यवस्था काफी हद तक असफल ही रही।
- इस अधिनियम ने पहली बार देश में द्विसदनीय व्यवस्था और प्रत्यक्ष निर्वाचन की व्यवस्था प्रारंभ की। इस प्रकार भारतीय विधान परिषद के स्थान पर द्विसदनीय व्यवस्था यानी राज्यसभा और लोकसभा का गठन किया गया। दोनों सदनों के बहुसंख्यक सदस्यों को प्रत्यक्ष निर्वाचन के माध्यम से निर्वाचित किया जाता था।
- इसके अनुसार, वायसराय की कार्यकारी परिषद के छह सदस्यों में से (कमांडर-इन-चीस को छोड़कर) तीन सदस्यों का भारतीय होना आवश्यक था।
- इसने सांप्रदायिक आधार पर सिखों, भारतीय ईसाईयों, आंग्ल-भारतीयों और यूरोपियों के लिए भी पृथक निर्वाचन के सिद्धांत को विस्तारित कर दिया।
- इस कानून ने संपत्ति, कर या शिक्षा के आधार पर सीमित संख्या में लोगों को मताधिकार प्रदान किया।
- इस कानून ने लंदन में भारत के उच्चायुक्त के कार्यालय का सृजन किया और अब तक भारत सचिव द्वारा किए जा रहे कुछ कार्यों को उच्चायुक्त को स्थानांतरित कर दिया गया।
- इससे एक लोक सेवा आयोग का गठन किया गया। अतः 1926 में सिविल सेवकों को भर्ती के लिए केंद्रीय लोक सेवा आयोग का गठन किया गया।
- इसने पहली बार केंद्रीय बजट की राज्यों के बजट से अलग कर दिया और राज्य विधानसभाओं को अपना बजट स्वयं बनाने के लिए अधिकृत कर दिया।
- इसके अंतर्गत एक वैधानिक आयोग का गठन किया गया, जिसका कार्य दस वर्ष बाद जांच करने के बाद अपनी रिपोर्ट प्रस्तुत करना था।
1935, का भारत शासन अधिनियम
- यह अधिनियम भारत में पूर्ण उत्तरदायी सरकार के गठन में एक मील का पत्थर साबित हुआ। यह एक लंबा और विस्तृत दस्तावेज था, जिसमें 321 धाराएं और 10 अनुसूचियां थीं।
- इसने अखिल भारतीय संघ की स्थापना की, जिसमें राज्य और रियासतों को एक इकाई की तरह माना गया। अधिनियम ने केंद्र और इकाइयों के बीच तीन सूचियों संघीय सूची (59 विषय), राज्य सूची (54 विषय) और समवर्ती सूची (दोनों के लिये, 36 विषय) के आधार पर शक्तियों का बंटवारा कर दिया। अवशिष्ट शक्तियां वायसराय को दे दी गई। हालांकि यह संघीय व्यवस्था कभी अस्तित्व में नहीं आई क्योंकि देसी रियासतों ने इसमें शामिल होने से इनकार कर दिया था।
- इसने प्रांतों में हैष शासन व्यवस्था समाप्त कर दी तथा प्रांतीय इसने प्रांतों का शुभारंभ किया। राज्यों को अपने दायरे में रह कर स्वायत तरीके से तीन पृथक् क्षेत्रों में शासन का अधिकार दिया गया। इसके अतिरिक्त अधिनियम ने राज्यों में उत्तरदायी दिकार की स्थापना की। यानि गवर्नर को राज्य विधान परिषदों के लिए उत्तरदायी मंत्रियों की सलाह पर काम करना आवश्यक था। यह व्यवस्था 1937 में शुरू की गई और 1939 में इसे समाप्त कर दिया गया।
- इसने केंद्र में द्वैध शासन प्रणाली का शुभारंभ किया। परिणामतः संघीय विषयों को स्थानांतरित और आरक्षित विषयों में विभक्त करना पड़ा। हालांकि यह प्रावधान कभी लागू नहीं हो सका।
- इसने 11 राज्यों में से छह में द्विसदनीय व्यवस्था प्रारंभ की। इस प्रकार, बंगाल, बंबई, मद्रास, बिहार, संयुक्त प्रांत और असम में द्विसदनीय विधान परिषद् और विधानसभा बन गई। हालांकि इन पर कई प्रकार के प्रतिबंध थे।
- इसने दलित जातियों, महिलाओं और मजदूर वर्ग के लिए अलग से निर्वाचन की व्यवस्था कर सांप्रदायिक प्रतिनिधित्व व्यवस्था का विस्तार किया।
- इसने भारत शासन अधिनियम, 1858 द्वारा स्थापित भारत परिषद को समाप्त कर दिया। इंग्लैंड में भारत सचिव को सलाहकारों की टीम मिल गई।
- इसने मताधिकार का विस्तार किया। लगभग दस प्रतिशत जनसंख्या को मत का अधिकार मिल गया।
- इसके अंतर्गत देश की मुद्रा और साख पर नियंत्रण के लिये भारतीय रिजर्व बैंक की स्थापना की गई।
- इसने न केवल संघीय लोक सेवा आयोग की स्थापना की बल्कि प्रांतीय सेवा आयोग और दो या अधिक राज्यों के लिए संयुक्त सेवा आयोग की स्थापना भी की।
- इसके तहत 1937 में संघीय न्यायालय की स्थापना हुई।
भारतीय स्वतंत्रता अधिनियम, 1947
- 20 फरवरी, 1947 को ब्रिटिश प्रधानमंत्री क्लीमेंट एटली ने घोषणा की कि 30 जून, 1947 को भारत में ब्रिटिश शासन समाप्त हो जाएगा। इसके बाद सत्ता उत्तरदायी भारतीय हाथों में सौंप दी जाएगी। इस घोषणा पर मुस्लिम लीग ने आंदोलन किया और भारत के विभाजन की बात कही। 3 जून, 1947 को ब्रिटिश सरकार ने फिर स्पष्ट किया कि 1946 में गठित संविधान सभा द्वारा बनाया गया संविधान उन क्षेत्रों में लागू नहीं होगा, जो इसे स्वीकार नहीं करेंगे। उसी दिन 3 जून, 1947 को वायसराय लॉर्ड माउंटबेटन ने विभाजन की योजना पेश की, जिसे माउंटबेटन योजना कहा गया। इस योजना को कांग्रेस और मुस्लिम लीग ने स्वीकार कर लिया। इस प्रकार भारतीय स्वतंत्रता अधिनियम, 1947 बनाकर उसे लागू कर दिया गया। इसने भारत में ब्रिटिश राज समाप्त कर 15 अगस्त, 1947 को इसे स्वतंत्र और संप्रभु राष्ट्र घोषित कर दिया। इसने भारत का विभाजन कर दो स्वतन्त्र डोमिनयनों-संप्रभु राष्ट्र भारत और पाकिस्तान का सूजन किया, जिन्हें ब्रिटिश राष्ट्रमंडल से अलग होने की स्वतंत्रता थी।
- इसने वायसराय का पद समाप्त कर दिया और उसके स्थान पर दोनों डोमिनयन राज्यों में गवर्नर जनरल पद का सृजन किया, जिसकी नियुक्ति नए राष्ट्र की कैबिनेट की सिफारिश पर ब्रिटेन के ताज को करनी था। इन पर ब्रिटेन की सरकार का कोई नियंत्रण नहीं होना था।
- इसने दोनों डोमिनियन राज्यों संविधान सभाओं को अपने देशों का संविधान बनाने और उसके लिए किसी भी देश के संविधान को अपनाने की शक्ति दी। सभाओं को यह भी शक्ति थी कि वे किसी भी ब्रिटिश कानून को समाप्त करने के लिए कानून बना सकती थीं, यहां तक कि उन्हें स्वतंत्रता अधिनियम को भी निरस्त करने का अधिकार था।
- इसने दोनों डोमिनयन राज्यों की संविधान सभाओं को यह शक्ति प्रदान की कि वे नए संविधान का निर्माण एवं कार्यान्वित होने तक अपने-अपने सम्बन्धित क्षेत्रों के लिए विधानसभा बना सकती थीं। 15 अगस्त, 1947 के बाद ब्रिटिश संसद में पारित हुआ कोई भी अधिनियम दोनों डोमिनयनों पर तब तक लागू नहीं होगा, जब तक कि दोनों डोमिनियन इस कानून को मानने के लिए कानून नहीं बना लेंगे।
- इस कानून ने ब्रिटेन में भारत सचिव का पद समाप्त कर दिया। इसकी सभी शक्तियां राष्ट्रमंडल मामलों के राज्य सचिव को स्थानांतरित कर दी गई।
- इसने 15 अगस्त, 1947 से भारतीय रियासतों पर ब्रिटिश संप्रभुता की समाप्ति की भी घोषणा की। इसके साथ ही आदिवासी क्षेत्र समझौता संबंधों पर भी ब्रिटिश हस्तक्षेप समाप्त हो गया।
14-15 अगस्त, 1947 की मध्य रात्रि को भारत में ब्रिटिश शासन का अंत हो गया और समस्त शक्तियां दो नए स्वतंत्र डोमिनियनों-भारत और पाकिस्तान" को स्थानांतरित कर दी गईं। लॉर्ड माउंटबेटन नए डोमिनियन भारत, के प्रथम गवर्नर-जनरल बने। उन्होंने जवाहरलाल नेहरू को भारत के पहले प्रधानमंत्री के रूप में शपथ दिलाई। 1946 में बनी संविधान सभा को स्वतंत्र भारतीय डोमिनियन की संसद के रूप में स्वीकार कर लिया गया।
Read more: भारतीय संविधान की पृष्ठभूमि:1773 से 1857 (part 1)
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